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कंकाल-अध्याय -८९

बरसात के प्रारम्भिक दिन थे। संध्या होने में विलंब था। दशाश्वमेध घाट वाली चुंगी-चौकी से सटा हुआ जो पीपल का वृक्ष है, उसके नीचे कितने ही मनुष्य कहलाने वाले प्राणियों का ठिकाना है। पुण्य-स्नान करने वाली बुढ़ियों की बाँस की डाली में से निकलकर चार-चार चावल सबों के फटे आँचल में पड़ जाते हैं, उनसे कितनों के विकृत अंग की पुष्टि होती है। काशी में बड़े-बड़े अनाथालय, बड़े-बड़े अन्नसत्र हैं और उनके संचालक स्वर्ग में जाने वाली आकाश-कुसुमों की सीढ़ी की कल्पना छाती फुलाकर करते हैं; पर इन्हें तो झुकी हुई कमर, झुर्रियों से भरे हाथों वाली रामनामी ओढ़े हुए अन्नपूर्णा की प्रतिमाएँ ही दो दाने दे देती हैं।

दो मोटी ईंटों पर खपड़ा रखकर इन्हीं दानों को भूनती हुई, कूड़े की ईंधन से कितनी क्षुधा-ज्वालाएँ निवृत्त होती हैं। यह एक दर्शनीय दृश्य है। सामने नाई अपने टाट बिछाकर बाल बनाने में लगे हैं, वे पीपल की जड़ से टिके हुए देवता के परमभक्त हैं, स्नान करके अपनी कमाई के फल-फूल उन्हीं पर चढ़ाते हैं। वे नग्न-भग्न देवता, भूखे-प्यासे जीवित देवता, क्या पूजा के अधिकारी नहीं उन्हीं में फटे कम्बल पर ईंट का तकिया लगाये विजय भी पड़ा है। अब उसके पहचाने जाने की तनिक भी संभावना नहीं। छाती तक हड्डियों का ढाँचा और पिंडलियों पर सूजन की चिकनाई, बालों के घनेपन में बड़ी-बड़ी आँखें और उन्हें बाँधे हुए एक चीथड़ा, इन सबों ने मिलकर विजय को-'नये' को-छिपा लिया था। वह ऊपर लटकती हुए पीपल की पत्तियों का हिलना देख रहा था। वह चुप था। दूसरे अपने सायंकाल के भोजन के लिए व्यग्र थे।

अँधेरा हो चला, रात्रि आयी, कितनों के विभव-विकास पर चाँदनी तानने और कितनों के अन्धकार में अपनी व्यंग्य की हँसी छिड़कने! विजय निष्चेष्ट था। उसका भालू उसके पास घूमकर आया, उसने दुलार किया। विजय के मुँह पर हँसी आयी, उसने धीरे से हाथ उठाकर उसके सिर पर रख पूछा, 'भालू! तुम्हें कुछ खाने को मिला?' भालू ने जँभाई लेकर जीभ से अपना मुँह पोंछा, फिर बगल में सो रहा। दोनों मित्र निश्चेष्ट सोने का अभिनय करने लगे।

एक भारी गठरी लिए दूसरा भिखमंगा आकर उसी जगह सोये हुए विजय को घूरने लगा। अन्धकार में उसकी तीव्रता देखी न गयी; पर वह बोल उठा, 'क्यों बे बदमाश! मेरी जगह तूने लम्बी तानी है मारूँ डण्डे से, तेरी खोपड़ी फूट जाय!'

उसने डण्डा ताना ही था कि भालू झपट पड़ा। विजय ने विकृत कण्ठ से कहा, 'भालू! जाने दो, यह मथुरा का थानेदार है, घूस लेने के अपराध में जेल काटकर आया है, यहाँ भी तुम्हारा चालान कर देगा तब?'

भालू लौट पड़ा और नया भिखमंगा एक बार चौंक उठा, 'कौन है रे?' कहता वहाँ से खिसक गया। विजय फिर निश्चिन्त हो गया। उसे नींद आने लगी। पैरों में सूजन थी, पीड़ा थी, अनाहार से वह दुर्बल था।

एक घण्टा बीता न होगा कि एक स्त्री आयी, उसने कहा, 'भाई!' 'बहन!' कहकर विजय उठ बैठा। उस स्त्री ने कुछ रोटियाँ उसके हाथ पर रख दीं। विजय खाने लगा। स्त्री ने कहा, 'मेरी नौकरी लग गयी भाई! अब तुम भूखे न रहोगे।'

'कहाँ बहन दूसरी रोटी समाप्त करते हुए विजय ने पूछा।

'श्रीचन्द्र के यहाँ।'

विजय के हाथ से रोटी गिर पड़ी। उसने कहा, 'तुमने आज मेरे साथ बड़ा अन्याय किया बहन!'

'क्षमा करो भाई! तुम्हारी माँ मरण-सेज पर है, तुम उन्हें एक बार देखोगे?'

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